कुछ दिल से
एक बार फिर से ख्वाहिश हुई है जीने की , वज़ह भी पता नहीं , पर तलब सी लगी है जीने की । कुछ है जो रह-रह के घुमड़ता है दिल में ,आकार नहीं दे पाती , लिख नहीं पाती पर कुछ तो है जो धुंध की तरह सीने में घूमता रहता है , कागज़ कलम मुझे घूरते हैं , मैं नज़रें चुराती हूँ उनसे बचती रहती हूँ पर यदि लिख ना दूँ तो घुट के मर जाऊँ शायद । क्या होता गर ये लिखने का जुनूँ ना पाला होता , अब तक तो एक ज्वालामुखी फट चुका होता मेरे अंदर , लावा निकल आता बाहर । आंखें सब उगल देने को है , होंठ सब कुछ कह देना चाहते हैं पर जब ये सब असमर्थ हो जाते हैं तो हाथों की शरण लेते हैं कि वो कलम पकड़े और निज़ात दिला दे इस गुबार से । हार जाती हूँ इस कोहरे से , रो पड़ती हूँ , आँसू बहने लगते हैं , इनका नमकीन स्वाद चखना अच्छा लगता है । उफ़्फ़ इत्ती पीड़ा , पर जब लिख देती हूँ तो ऐसा लगता है चाँदनी खिली है चारों तरफ ,फूल हँस रहे हैं , परियाँ नाच रही हैं , खुशनुमा मौसम है और एक मदिर संगीत धुन बज रही है हौले - हौले । पर अभी शेष है बहुत कुछ , कह देना है बहुत कुछ , लिखना है बहुत कुछ पर कैसे ? पता नहीं , पता नहीं