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Showing posts from April, 2018

बचपन की यादें

http://www.rachanakar.org/2018/01/12_27.html

ख़त लिखा है ...

आज एक खत लिखा है किरण डोरी को बाँध चाँद के नाम कुछ भुरभुरे सपने लिखे हैं लिखी हैं कुछ शिकायतें सितारों की कुछ अनकही बातें लिखी हैं जलते अलाव से अहसास लिखे हैं अश्कों के नमकीन पानी से भीगे अल्फाज़ लिखे हैं #दुआ

तू ही बता ..

ये जो थकन है पोर - पोर में उम्र की है या यादो के बोझ की ज़िंदगी तू ही बता बोझिल हैं जो साँसें धुएँ से हैं या मन के बंधन से ज़िंदगी तू ही बता नमी सी है आँखों में याद से है या तिनके से ज़िंदगी तू ही बता #दुआ

कुबुल करना चाहती हूँ ..

कुछ भूलना , भुलाना चाहती हूँ इस ज़िस्म से आज़ाद होना चाहती हूँ राख के ढेर में हैं चिन्गारियाँ बहुत इन्हें शोलों में बदलना चाहती हूँ जी डूब रहा मेरा शाम के साथ-साथ अब कयामत महसूस करना चाहती हूँ गरदिशे दौरां ने सिखाया है बहुत अब ग़म कुबूल करना चाहती हूँ #दुआ

मिलन बेला

आदित्य अवसान हुआ नभ में मैं पुलक , रोमांचित हुई हिय में अति उत्सुक शशि स्वागत के लिए संध्या मादक हुई अपरिमेय  तिमिर आच्छादित प्रांगण में पिय की छवि है कंगन में दीप प्रज्जवलित शोभायमान मिलन बेला निकट जान #दुआ

विगत

विगत को निहारती हूँ कुछ मादक स्मृतियाँ पाती हूँ कुछ मधुरा हैं , कुछ त्वरा हैं कुछ पुलक भरी कुछ अतिरंजित कभी राग-विराग , कभी संकुचन कभी निराशा कभी जीवन धन कभी व्याकुलता कभी आकुलता कभी भ्रांत हुई कभी शांत रही था समर्पण कहीं ,आकर्षण कहीं नितांत अपरिचित थी नियति सतत प्रेरणा थी संग - संग देखे मैंने कुछ नव्य रंग कहीं प्रस्तर मिले मार्ग में थीं कहीं गुह्य कंदराएँ कहीं गुलमोहर थे खिले हुए कहीं सूखे पत्ते गिरे हुए #दुआ

तुम यहीं हो

रात्रि की निस्तब्धता बोलते झींगुर मादक चाँदनी सर्वत्र कालिमा मदिर गंध सब कह रहे हैं तुम यहीं हो , यहीं कहीं हो झुकीं पलकें प्रणय - विधु हृदय उन्माद सरस हँसी अदम्य अभिलाषा प्रमाण हैं , तुम यहीं हो , यहीं कहीं हो काँपते होंठ अस्फुट स्वर धीमा - धीमा संगीत मद्धिम रौशनी भीनी खुशबू प्रमाण हैं , तुम यहीं हो , यहीं कहीं हो #दुआ

संध्या सुंदरी

संध्या सुंदरी अवतरण तारों का प्रज्ज्वलित वेणी बंधन बसंत रजनी है ये प्रिय कंपित , स्पंदित मेरा हिय क्या द्वैत क्या अद्वैत क्या परिचय क्या अपरिचय प्राण प्रियमय , प्रिय प्राणमय आह ये श्वासों का अवगुंठन #दुआ