चाय के दो कप

मैं नीर भरी दुख की बदली!

स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झणी मचली!
कवयित्री महादेवी वर्मा की कविता पढ़ते-पढ़ते सो गई पूर्वा । नींद से जागने पर गालों को छू कर देखा तो पता लगा सोते-सोते रो रही थी वो । आँसू पोंछ शाम की चाय बनाने गई तो अनायास फिर से दो कप चाय बना बैठी । आदत ही ऐसी थी पिछले कई वर्षों से अमित और अपनी चाय बना लेती थी । अवचेतन मन ये स्वीकार ही नहीं कर पाया कि अमित अब नहीं है इस दुनिया में  ।

" पूर्वा , मेरा टॉवल कहाँ है ? बाथरूम से अमित की पुकार पर दौड़ी जाती वो I
अरे ,वहीं तो है , सामने टंगे टॉवल को थमा कर वो भाग कर किचन में उबलता दूध संभालती
आदि का टिफिन पैक कर उसे जल्दी से स्कूल बस तक ले जाना , फिर सासू माँ का नाश्ता , दवाई देकर , ननद मिहिका को कॉलिज भेजना , उफ्फ कितना थका देती थी सुबह ।
पर जब बैंक जाते हुए अमित बालकनी में बाय करती पूर्वा को फ्लाइंग किस देता तो पसीने से तरबतर होते हुए भी वो खुशी से झूम उठती ।
मध्यम वर्ग के छोटे - छोटे सपने भी कितने बड़े होते हैं ना ।
कभी पैसे जोड़कर माइक्रोवेव खरीदते तो कभी डाइनिंग टेबल ।
पिया का घर है ये ,रानी हूँ मैं , रानी हूँ घर की , गुनगुनाते हुए पूर्वा सारा दिन घर के काम और सभी सदस्यों की देखभाल में लगी रहती ।
यही तो अनंत सुख है नारी जीवन का ।
एक तरह से अच्छी तरह गुज़र रही थी ज़िंदगी अगर वो सूनामी न आता तो ।
घर से निकला ही था अमित अपने टू-व्हीलर स्कूटर पर कि रांग साईड से आता ट्रक उसके साथ पूर्वा के जीवन की समस्त आकांक्षाओं को भी रौंद गया था ।
अमित का क्षत-विक्षत शव देखकर पागल सी हो गई थी वो ।
काँच की चूड़ियाँ तोड़ते हुए जो ज़ख्म हुए थे वो तो कुछ दिनों में भर गए पर उसकी वीरान आँखों में फिर रंग न लौट पाए ।
गुमसुम घर के एक कोने में निरूपाय , निश्चेष्ट बैठी रहती वो ।
किसी ने सच ही कहा है , सुख के दिन थोड़े होते हैं ।
नन्हे आदि का मासूम उदास चेहरा , सासू माँ की बढ़ती झुरियाँ और मिहिका की कॉलिज फीस का इंतजाम ऐसे यक्ष प्रश्न थे जो पूर्वा को दीमक की तरह चाट रहे थे ।
क्या करें ? कहाँ जाए ? , मायके में भी ले दे के मामा - मामी थे जो अपनी ही जुगत में व्यस्त रहते थे ।
अन्ततः एक दिन साहस जुटा अमित के बैंक में जा अपने लिए नौकरी का आवेदन दे आई वो
सासू माँ हल्के से एतराज़ जता चुप हो गई , आखिर परिवार की ज़रूरते जो नज़र आ रही थीं ग्रेजुएट तो थी पूर्वा पर कम्प्यूटर आदि की नालिज ज्यादा नहीं थी , पर बैंक ने उसके आवेदन को स्वीकार कर नवजीवन दिया जैसे उसे ।
प्रथम तीन मास तो पूर्वा को कामकाज समझने में ही लग गए । मधुर वर्मा जो उसी बैंक में काम करते थे , सदैव सहायता करते ।
मृदुभाषी , सौजन्य पूर्ण मधुर जब उसके बैलेंस शीट की गड़बड़ को चुटकियों में ठीक कर देते तो पूर्वा चमत्कृत हो उठती ।
शाम को थकान से चूर पूर्वा जब आँखें बंद कर लेती तो चुपचाप कॉफी का कप रख चले जाते वो ।
संकोच वश अधिक न बोलती पूर्वा ।
जीवन फिर से पटरी पर आ गया था ।
सुबह चार बजे उठकर घर के सारे काम निपटा वो बैंक जाती , शाम को आते ही साड़ी का पल्लू खोंस किचन में ।
इस भागदौड़ में अपने आस्तित्व को भूल ही गई थी वो ।
पर रात को आदि के पास बिस्तर में लेटते ही अमित की यादें पीछा करती । I
आदि की मुखाकृति हूबहू अमित पर थी ।
कईं बार रात के तीन बजे उठकर पूर्वा फिर से बिंदी लगाती , मांग में सिंदूर भरती , हाथों में कंगन , फिर अपना सुहाग का जोड़ा ओढ ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी रहती ।
क्या सचमुच कामनाओं का दमन किया जा सकता है ?
देह की अनिवार्यताओं को दरकिनार करना सरल है ?
फिर वस्तु स्थिति याद आते ही सब कुछ उतार, पोंछ तकिए में मुंह छुपा रोती रहती I
सुबह शॉवर के नीचे सिंदूर को अच्छी तरह धो डालना ही नियति बन गई थी उसकी I
माई री , मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की , मौन रहकर गुनगुनाती थी वो ।
इस शीतल अगन में जलते-जलते कब मधुर उसके मन मस्तिष्क पर अपनी छवि अंकित कर गए , जान न पाई पूर्वा ।
समवयस्क , निःसंतान विधुर थे मधुर जी |
एक शाम जब बैंक से निकलते हुए उन्होंने पूर्वा को घर छोड़ने की पेशकश की तो मना न कर पाई वो ।
पर खिड़की से झाँकती सासू माँ की वक्र दृष्टि आग्नेय हो उठी पूर्वा को मधुर के स्कूटर से उतरते देखकर |
सौजन्यता वश मधुर जी को कॉफी पिलाने घर के अंदर आई तो उनका क्रोध ज्वालामुखी सा फूट पड़ा ।
"कब से चल रहा है ये अफेयर ? " तोप की तरह गरजते हुए पूछा माँजी ने ।
हक्की-बक्की रह गई पूर्वा और मधुर तो रक्तिम हो उठे ।
लाख सफाई देने पर भी वो शांत न हुईं ।
उल्टे पैरों लौट गए मधुर।
पल भर में सर्वस्व तिरोहित हो गया ।
कुलटा , चरित्रहीन जैसे विशेषणों ने पूर्वा के हृदय को छलनी कर दिया।
कोई गलत काम नहीं किया था उसने फिर भी झूठे अभियोग से त्रस्त हो गई ।
सच है पुरुष सौ जगह मुँह मारे , मर्दानगी है उसकी , औरत किसी से हँस बोल ले तो पतिता है वो ।
चरित्र तो श्वेत चादर की भाँति जिस पर क्षुद्र धब्बा भी दूर से चमकता है ।
माँ जी किसी तरह पूर्वा को क्षमा नहीं कर रही थी यहाँ तक कि उन्होंने उसकी संगत से मिहिका के बिगड़ जाने की आशंका भी जताई ।
कोर्ट में पूर्वा को बदचलन का आरोप लगा नन्हे आदि को भी छीन लिया गया उससे ।
अन्ततः अमित का घर छोड़कर पूर्वा ने दूसरे शहर में एक विद्यालय में नौकरी कर ली
दिन यूँ ही पतझड़ की तरह बीत रहे थे
ऐसी ही एक उदास शाम जब पूर्वा चाय के दो कप बनाकर बैठी थी कि डोर बेल बजी
दसवाज़ा खोला तो हूबहू अमित की जैरोक्स कॉपी 'आदि 'खड़ा था उसके पीछे मधुर जी खड़े थे , चश्मे का शीशा थोड़ा मोटा था और कनपटी पर सफेदी झलक रही थी
पता चला एक कंपनी मीटिंग में मिले दोनों और मधुर ने वस्तु स्थिति समझाई आदि को और आदि आ गया वनवासिनी पूर्वा के पास
दूर कहीं गाना बज रहा था
   काहे को रोय ,
   सफल होगी तेरी आराधना ...

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