सिसकियों की मर्म व्यथा

लिख दी सिसकियों ने मर्म व्यथा
कुछ आधी - अधूरी रही कथा
संध्या धूमिल थी , दीप प्रज्जवलित
रुकी वायु , जीवन प्रतीक्षित

मन था भयमय , मौन सतत प्रहरी
बस मैं ही मैं , और कोई नहीं
खिन्नता ,अवसाद थे भरे हुए
अग्नि शिखा भी धधक रही

संपूर्ण नगर है क्षुब्ध , त्राण
कंठ में अटके जैसे प्राण
शशि नभ में यूँ  टहल रहा 
क्यूँ अन्तर ऐसा मचल रहा

विष विषाद आवरण है चहुँ ओर
पीड़ामय तन का पोर-पोर
करूणा सिंधु है बह रहा
जीवन , आह तू व्यर्थ कटा

रागिनी संध्या हो चुकी काली
रोए फूल , निराश माली
नयनों में उपालंभ की छाया
यत्र सर्वत्र झूठी माया

जीवन विक्षुब्ध , झंझा प्रवाह
मनु करता अनवरत कराह
नहीं ओर - छोर इतना अथाह
ढूंढना कठिन जो आज बहा

विस्मृत अतीत जो था शांत
वह सुंदर सुष्ठु चित्र कांत
अब निस्तब्ध गगन है अधीर
अचेतन चेतना , पिछड़ा समीर
#दुआ

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