दिवास्वप्न



रात्रि की भीगी पलकें तुहिन कण बरसाती हैं 
मोती की माला बनती, विगत स्मृति खिंच जाती है

दूर कहीं नीरव पथ पर जुगनू मद्धिम चमक रहे 
मेरी आशा के दीप जले, स्वप्न उस ओर बह चले

संपूर्ण सृष्टि सुषुप्त सी मुरली बजती है जीवन की 
उर में कामना मिलन की प्रकृति सहचरी मेरे मन की

वह पूर्ण चंद्र सुशोभित है व्योम चर है पूनम का 
ध्यान मग्न बैठी हूँ मैं, टूटता घेरा संयम का.

#अर्चना अग्रवाल 

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