संध्या

अंबर पथ से उतर रही अलसाती सी , मदमाती सी
सौंदर्य गर्विता नारी है वो ज्यों नदी कोई बल खाती सी
कवि गण की प्रेयसी है वो कर देती उन्हें अनुरागी
कोमल कमनीय कंठ गूँज उठते कईं राग , विरागी
संध्या सुंदरी के अवतरण से मंथर चलती है मलय
ढोलकें , शंख , होरी, ऋचाएँ गा उठते व्यथित हृदय
उड़ चले पाखी-पखेरू अपने नीड़ की ओर
क्लांत पथिक करते विश्राम पकड़ इसकी छोर

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