आशा
.राह है दूभर विकल है तन , मन पुलकित नहीं है
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है
किंतु , परंतु , आशा , निराशा सब हैं मन में आते
पर भवितव्यता के बस में हम सब जीते जाते
तिमिरावृत्त हो जीवन फिर भी पग हारे नहीं हैं
नियति हो विरूद्ध पर हम कर्म से दूर नहीं हैं
उत्ताल है लक्ष्य व अमूर्त हैं भावनाएँ
आवागमन के चक्र में फँसकर रोती हैं आत्माएँ
हे मनुज , तुम कर्मवीर हो फहरा दो विजय पताका
शमशीर बनो , शूरवीर बनो , बनो स्वयं अपने विधाता
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