प्रतीक्षा और आशा
रात्रि का तारामंडल अनंत
चहुँ ओर जो खिला है बसंत
दुख अब सुख में बदलने लगे
काव्य भाव उमड़ने लगे
हो रहा है मदिर शरीर
करे वो प्रतीक्षा हो अधीर
अंखियों में भरता है स्नेह
कुछ लजीली कंपित सी है देह
प्रेम पगा जीवन अमोल
मन में अनिश्चय रहा डोल
कब सुनूँगी मधुर बोल
विधु अब मकरंद घोल
यद्यपि नहीं जीवन में अभाव
क्यूँ देतीं ये स्मृतियाँ घाव
पुनः मिलन आशा की जाग
हो रहा स्नेह संचित अनुराग
चलती जीवन कंपन की तरंग
मन बावरा उड़े ज्यूँ पतंग
अब त्याग दी बात निराशा की
और ओढ़ी चुनरी अभिलाषा की
है हृदय में उसके अगाध विश्वास
शीघ्र प्रिय होंगे अब पास
जीवन नैया के वो पतवार
करे उत्सर्ग वो समस्त विकार
#दुआ
Comments
Post a Comment