मधुमय बसंत तुम
जीवन धन तुम
अलसाई अलकों में
राग चंद्र तुम
कुंतल जाल पाश में
मेरे हृदय को
करती कैद तुम
पुलकित , उन्नत सर्वांग मेरा
मधुकरी का संचित धन तुम
इन काले सफेद पन्नों के पीछे छुपे हैं कुछ भयावह सत्य जिन्हें देख , पढ़ सुन्न होती शिराएँ कराहों से भरी दर्द की स्याही से लिखी ये खबरें अलसुब्ह मेरी ड्योढ़ी पे आ जाती हैं विश्वास का एक तिनका हृदय के नीड़ से रोज़ तोड़ जाती हैं #अर्चना अग्रवाल
लिख दी सिसकियों ने मर्म व्यथा कुछ आधी - अधूरी रही कथा संध्या धूमिल थी , दीप प्रज्जवलित रुकी वायु , जीवन प्रतीक्षित मन था भयमय , मौन सतत प्रहरी बस मैं ही मैं , और कोई नहीं खिन्नता ,अवसाद थे भरे हुए अग्नि शिखा भी धधक रही संपूर्ण नगर है क्षुब्ध , त्राण कंठ में अटके जैसे प्राण शशि नभ में यूँ टहल रहा क्यूँ अन्तर ऐसा मचल रहा विष विषाद आवरण है चहुँ ओर पीड़ामय तन का पोर-पोर करूणा सिंधु है बह रहा जीवन , आह तू व्यर्थ कटा रागिनी संध्या हो चुकी काली रोए फूल , निराश माली नयनों में उपालंभ की छाया यत्र सर्वत्र झूठी माया जीवन विक्षुब्ध , झंझा प्रवाह मनु करता अनवरत कराह नहीं ओर - छोर इतना अथाह ढूंढना कठिन जो आज बहा विस्मृत अतीत जो था शांत वह सुंदर सुष्ठु चित्र कांत अब निस्तब्ध गगन है अधीर अचेतन चेतना , पिछड़ा समीर #दुआ
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