पीर बढ़ रही है

पीर बढ़ रही है चलो मुस्कुराते हैं
आँख भरने लगी है चलो गाते हैं
प्राण हैं विकलित कुछ लिखते हैं
भीतर के घाव बाहर कहाँ दिखते हैं

तुम कहो शहर हम जंगल कहते हैं
गुलमोहर के फूल जहाँ दहकते हैं
अपवाद ही अपवाद नियम कहाँ ठहरते हैं
जिजीविषा है पर शमशान में रहते हैं

इंसानों के वेश में भेड़िए रहते हैं
बच्ची भी सुरक्षित नहीं , हम कहते हैं
कपड़ों ,घूमने को बनाते हैं ढाल
प्रशासन की चुप्पी हम सहते हैं

#दुआ

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