संध्या
शांत स्पंदन जल लहरी
मैं आ बैठी सागर- तीरे
नियति शासन से विवश
संध्या अवतरित हुई धीरे-धीरे
अश्रु संग तम घोल लिखती
पिय वियोग का वह इतिहास
कहीं दूर एक नन्ही पाखी
सहसा कर बैठी मृदु हास
क्यूँ तू इतनी है खिलखिलाती
किसे है स्मृति पथ में लाती ?
अरी पगली , सुन हो गंभीर
पिय बिदेस हृदय विकल अधीर
श्रृंगार , हार छूटा है समस्त
अस्थिर चित्त ,सुमिरन में व्यस्त
अलकें उलझीं , दुर्भर पीड़ा
वो मोहिनी छवि केलि- क्रीड़ा
नहीं अपराध मेरा है जग - माया
यत्र-सर्वत्र तम की छाया
क्रूर भाग्य की ये निर्ममता
हिय क्रंदित विष विषमता
#अर्चना अग्रवाल
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