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Showing posts from 2018

खामोशी में लफ़्ज़ बोलते हैं

खामोशी में लफ़्ज़ बोलते हैं ज़ुबाँ न सही अक्स बोलते हैं जीने की जुम्बिश  ज़रूरी है मगर कभी-कभी वीराने के सफ़र बोलते हैं खामोशी में लफ़्ज़ बोलते हैं जब ज़ज्बात भर जाए दर्द से बहते हुए अश्क बोलते हैं दिल की कहानी होती है बड़ी अजीब काँपते हुए लब बोलते हैं खामोशी में लफ़्ज़ बोलते हैं बहुत कुछ हम कहना चाहे तो आँखों के कोये बोलते हैं यूँ तो बावस्ता हैं हमसे खुशियाँ पर बेवज़ह गम के निशाँ बोलते हैं खामोशी में लफ़्ज़ बोलते हैं #दुआ

तुम रहने दो

तुम रहने दो ..... तुमसे मोहब्बत  हो नहीं पाएगी मेरी भावनाएं , मेरी संवेदनाएँ , मेरी चुप्पी जो अनकहा था है और शायद रहेगा भी नारी मन को भला कौन पढ़ पाया है ? कौन समझ पाया है , कौन गुन पाया है ? तो तुम भी कैसे समझ पाओगे ? पुरुष जो ठहरे जानते नहीं हो शायद नारी का प्यार मन से शुरू होता है और तुम्हारा अनुराग तन से बस ... तुम रहने दो ... तुमसे मोहब्बत हो नहीं पाएगी #दुआ

जीत लेती हूँ

थोड़ा जीत लेती हूँ थोड़ा हार जाती हूँ साँसों की लय में हरदम वही संगीत पाती हूँ कभी अँधेरा है घना कभी उजास दिखती है इस धूप छौंही खेल में खुद को फिर भी ढूँढ लेती हूँ ऑखें बंद कर बैठूँ तुम दिखाई देते हो सबकी नज़रों से दूर तुमसे बातें करती हूँ कोई क्या जाने मेरे दिन - प्रतिदिन के संघर्ष कभी हँसने लगती हूँ कभी रो पड़ती हूँ #दुआ  

तुम ही

तुम्हारा छूना याद दिला देता है देह को , औरत होने को भूल जाती सारे दुख समीप रहती केवल अंतरंगता मादक स्पर्श , गंध तुम्हारी दूर कहीं मुरली की धुन प्रिय कर लगती कानों को तुम तराशते मुझे ज्यों मूरत मैं                                       वो संगमरमर की मूरत जो नक्काशी की अद्भुत मिसाल है रोज़ ढलती है नए रूप में , नए रंग में यूँ ही तुम झरते रहो मुझ पर भर दो मेरे खाली अन्तस को ये सिर्फ़ तुम ही कर सकते सिर्फ़ तुम ही

रात

आगोश में वो आए तो साँसें थम गईं एक चाँद बहक गया एक रात मचल गई #दुआ

अभिज्ञान शाकुंतलम

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चाय के दो कप

मैं नीर भरी दुख की बदली! स्पंदन में चिर निस्पंद बसा, क्रंदन में आहत विश्व हँसा, नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झणी मचली! कवयित्री महादेवी वर्मा की कविता पढ़ते-पढ़ते सो गई पूर्वा । नींद से जागने पर गालों को छू कर देखा तो पता लगा सोते-सोते रो रही थी वो । आँसू पोंछ शाम की चाय बनाने गई तो अनायास फिर से दो कप चाय बना बैठी । आदत ही ऐसी थी पिछले कई वर्षों से अमित और अपनी चाय बना लेती थी । अवचेतन मन ये स्वीकार ही नहीं कर पाया कि अमित अब नहीं है इस दुनिया में  । " पूर्वा , मेरा टॉवल कहाँ है ? बाथरूम से अमित की पुकार पर दौड़ी जाती वो I अरे ,वहीं तो है , सामने टंगे टॉवल को थमा कर वो भाग कर किचन में उबलता दूध संभालती आदि का टिफिन पैक कर उसे जल्दी से स्कूल बस तक ले जाना , फिर सासू माँ का नाश्ता , दवाई देकर , ननद मिहिका को कॉलिज भेजना , उफ्फ कितना थका देती थी सुबह । पर जब बैंक जाते हुए अमित बालकनी में बाय करती पूर्वा को फ्लाइंग किस देता तो पसीने से तरबतर होते हुए भी वो खुशी से झूम उठती । मध्यम वर्ग के छोटे - छोटे सपने भी कितने बड़े होते हैं ना । कभी पैसे जोड़कर माइक्रोवेव खरी

स्मृतियाँ

विगत को निहारती हूँ कुछ मादक स्मृतियाँ पाती हूँ कुछ मधुरा हैं , कुछ त्वरा हैं कुछ पुलक भरी कुछ अतिरंजित कभी राग-विराग , कभी संकुचन कभी निराशा कभी जीवन धन कभी व्याकुलता कभी आकुलता कभी भ्रांत हुई कभी शांत रही था समर्पण कहीं ,आकर्षण कहीं नितांत अपरिचित थी नियति सतत प्रेरणा थी संग - संग देखे मैंने कुछ नव्य रंग कहीं प्रस्तर मिले मार्ग में थीं कहीं गुह्य कंदराएँ कहीं गुलमोहर थे खिले हुए कहीं सूखे पत्ते गिरे हुए #दुआ

सच्च .....

तुम्हारी याद अब भी है सिगरेट के अधबुझे टुकड़ों में बादलों के आगोश में छुपे धूमिल से चाँद में घर के पास खड़े पेड़ में छुपी कोयल की कूक में और सच बताऊँ तुम्हारी उतारी कमीज़ में जिसे रोज़ चुपके से एक बार ज़रूर पहनती हूँ मैं , सच्च ..... तुम्हारी याद अब भी है मीठे पान की गिलौरी में उसी रेस्तरां के मसाला डोसे में तुम्हारे पसंदीदा परफ्यूम में साँसों की ताजगी में और सच बताऊँ तुम्हारी किताबों में जिन्हें छूकर तुम्हें महसूस कर लेती हूँ मैं , सच्च ..... #दुआ

कुछ समझे ?

तुम्हारा नेह .. रेशम के कीड़ों सा अर्जुन के वृक्ष पर पले , बढ़े तब तक रेशम की गुठली ना निकाली जाए जब तक मेरा प्रेम .. सुर साधक के विकल कंठ सा आत्मा के आर्तनाद की तरह अविरल रक्त प्रवाह समान कुछ समझे ? #दुआ

चाँद की ज़मीं

चाँद की ज़मीं पर खेती करनी है बोने हैं कुछ सपने , कुछ भाव सलोने अश्रु जल से सिंचाई कर रोज़ निगहबानी करनी है चाँद की ज़मीं पर खेती करनी है ... जो मिल ना सका इस धरती पर उसकी फसल उगानी है निराई , गुड़ाई कर  दिल की खुशियाँ पानी हैं चाँद की ज़मीं पर खेती करनी है #दुआ

ज़िंदगी क्या है ?

ज़िंदगी क्या है ?  दवा , दुआ , सफर या एक अनजाना सा रास्ता ये तो पता नहीं पर इतना जानती हूँ कि इस रास्ते के अंतिम छोर पर एक उजली रोशनी है लोग उसे मौत कहते हैं , काली छाया कहते हैं लेकिन मुझे ऐसा कभी नहीं लगा मैंने दर्द के अनंत सागर में डूब अनेकों बार इसे छुआ ये मुझे रूई के फाहों की तरह खुशनुमा लगी । देह से निकलकर उड़ी हूँ भारहीन , चिंताविहीन अवस्था में ये सुखद अहसास रहा मेरे लिए । सारा दुख तो इस काया के साथ काया के बाद तो आनंद ही आनंद I ना सामाजिक विवशताएँ और ना ही कोई दायित्व । किंकर्त्तव्यविमूढ़ता , ये दायरे , ये बंधन सब छूट जाएँ तो फिर कैसी पीड़ा ? मुझे आकर्षित करता है वो प्रकाश , रिझाता है , व्याकुल हूँ अन्तर्मन से उसमें समाहित होने के लिए पर मुझे पता है अभी शेष है कुछ जो भोगना है  । कभी -कभी इस संसार की हर चीज़ से मन उचाट हो जाता है भरसक प्रयास करने पड़ते हैं मन लगाने के लिए यहाँ क्योंकि अभी जीना है मुझे हाँ अभी जीना है कुछ और

असंभव नहीं

देह में होकर देह से भिन्न सोचना कठिन है असंभव नहीं बात करना बहती नदी से ,वृक्ष से सुखद है असंभव नहीं स्वयं में रहकर तुम्हें पा लेना प्रेम है वासना  नहीं दहकते पलाश पर कविता लिखना भाव है , उन्मुक्तता नहीं सुर साधना नाभि तक उठना अनहद नाद कठिन है असंभव नहीं फूस की झोंपड़ी में खिलखिलाहट सुखद है असंभव नहीं हल्की वर्षा से मदिर गंध नशा है व्यसन नहीं जीने के लिए कविता लिखना खूबसूरत है विवशता नहीं #दुआ

कहाँ ?

मेरी धूप जब तक चाँदनी ना बन जाए तुम्हारी बाट जोहती है आँगन की ड्योढ़ी का दिया जलकर तुम्हें ढूँढता है खेत की मेड़ का पानी रिसकर तुम्हारी राह धोता है और मेरा मन ... वो बस खोया रहता है तुम्हें पाने में ख़ुद को खो बैठी सौदा घाटे का कर बैठी जीवन तुम बिन ऐसे जिया जैसे कोई समाधि का दिया समर्पण कर मैं हार गई सर्वस्व तुम पर वार गई जब ना रहूँगी यहाँ ढूंढोगे मुझको कहाँ - कहाँ  ? #दुआ

हृदय पढ लूँगी

बस चुपचाप बैठो मेरे पास सुनो मेरी खामोशी महसूस करो वो अनकहा जो उमड़ घुमड़ रहा अन्तस में युग-युगांतर से पिछले कई जन्मों से इस जन्म तक अब तो सुन लो ........ जब भ्रमण करेंगी हमारी आत्माएँ असंख्य ग्रह , मंडलों के मध्य तारों के समीप , चाँद लोक में तब संवाद की स्थिति से परे तुम मेरे इंगित समझ लेना मैं तुम्हारा हृदय पढ़ लूँगी

बचपन की यादें

http://www.rachanakar.org/2018/01/12_27.html

ख़त लिखा है ...

आज एक खत लिखा है किरण डोरी को बाँध चाँद के नाम कुछ भुरभुरे सपने लिखे हैं लिखी हैं कुछ शिकायतें सितारों की कुछ अनकही बातें लिखी हैं जलते अलाव से अहसास लिखे हैं अश्कों के नमकीन पानी से भीगे अल्फाज़ लिखे हैं #दुआ

तू ही बता ..

ये जो थकन है पोर - पोर में उम्र की है या यादो के बोझ की ज़िंदगी तू ही बता बोझिल हैं जो साँसें धुएँ से हैं या मन के बंधन से ज़िंदगी तू ही बता नमी सी है आँखों में याद से है या तिनके से ज़िंदगी तू ही बता #दुआ

कुबुल करना चाहती हूँ ..

कुछ भूलना , भुलाना चाहती हूँ इस ज़िस्म से आज़ाद होना चाहती हूँ राख के ढेर में हैं चिन्गारियाँ बहुत इन्हें शोलों में बदलना चाहती हूँ जी डूब रहा मेरा शाम के साथ-साथ अब कयामत महसूस करना चाहती हूँ गरदिशे दौरां ने सिखाया है बहुत अब ग़म कुबूल करना चाहती हूँ #दुआ

मिलन बेला

आदित्य अवसान हुआ नभ में मैं पुलक , रोमांचित हुई हिय में अति उत्सुक शशि स्वागत के लिए संध्या मादक हुई अपरिमेय  तिमिर आच्छादित प्रांगण में पिय की छवि है कंगन में दीप प्रज्जवलित शोभायमान मिलन बेला निकट जान #दुआ

विगत

विगत को निहारती हूँ कुछ मादक स्मृतियाँ पाती हूँ कुछ मधुरा हैं , कुछ त्वरा हैं कुछ पुलक भरी कुछ अतिरंजित कभी राग-विराग , कभी संकुचन कभी निराशा कभी जीवन धन कभी व्याकुलता कभी आकुलता कभी भ्रांत हुई कभी शांत रही था समर्पण कहीं ,आकर्षण कहीं नितांत अपरिचित थी नियति सतत प्रेरणा थी संग - संग देखे मैंने कुछ नव्य रंग कहीं प्रस्तर मिले मार्ग में थीं कहीं गुह्य कंदराएँ कहीं गुलमोहर थे खिले हुए कहीं सूखे पत्ते गिरे हुए #दुआ

तुम यहीं हो

रात्रि की निस्तब्धता बोलते झींगुर मादक चाँदनी सर्वत्र कालिमा मदिर गंध सब कह रहे हैं तुम यहीं हो , यहीं कहीं हो झुकीं पलकें प्रणय - विधु हृदय उन्माद सरस हँसी अदम्य अभिलाषा प्रमाण हैं , तुम यहीं हो , यहीं कहीं हो काँपते होंठ अस्फुट स्वर धीमा - धीमा संगीत मद्धिम रौशनी भीनी खुशबू प्रमाण हैं , तुम यहीं हो , यहीं कहीं हो #दुआ

संध्या सुंदरी

संध्या सुंदरी अवतरण तारों का प्रज्ज्वलित वेणी बंधन बसंत रजनी है ये प्रिय कंपित , स्पंदित मेरा हिय क्या द्वैत क्या अद्वैत क्या परिचय क्या अपरिचय प्राण प्रियमय , प्रिय प्राणमय आह ये श्वासों का अवगुंठन #दुआ

प्रतीक्षा और आशा

रात्रि का तारामंडल अनंत चहुँ ओर जो खिला है बसंत दुख अब सुख में बदलने लगे काव्य भाव उमड़ने लगे हो रहा है मदिर शरीर करे वो प्रतीक्षा हो अधीर अंखियों में भरता है स्नेह कुछ लजीली कंपित सी है देह प्रेम पगा जीवन अमोल मन में अनिश्चय रहा डोल कब सुनूँगी मधुर बोल विधु अब मकरंद घोल यद्यपि नहीं जीवन में अभाव क्यूँ देतीं ये स्मृतियाँ  घाव पुनः मिलन आशा की जाग हो रहा स्नेह संचित अनुराग चलती जीवन कंपन की तरंग मन बावरा उड़े ज्यूँ पतंग अब त्याग दी बात निराशा की और ओढ़ी चुनरी अभिलाषा की है हृदय में उसके अगाध विश्वास शीघ्र प्रिय होंगे अब पास जीवन नैया के वो पतवार करे उत्सर्ग वो समस्त विकार #दुआ

मृत्यु

मृत्यु हादसा नहीं एक अन्य यात्रा का द्वार है अनंत उजाले की ओर इस काया से परे समस्त ताप, परितापों का त्याग अहा ! मृत्यु इस मृत्युलोक से छुटकारा दिलाती है #दुआ

कैसे कहूँ ????

देखती हूँ रोज़ नन्ही बच्चियों की रेप की खबरें कैसे कहूँ शुभ हो महिला दिवस चोरी छुपे अब भी मसली जातीं कलियाँ गर्भ में कैसे कहूँ शुभ हो महिला दिवस बस में आज भी होती है छेड़खानी कैसे कहूँ शुभ हो महिला दिवस निर्भया के हत्यारे आज भी हैं ज़िंदा कैसे कहूँ शुभ हो महिला दिवस #दुआ

चदरिया इश्क की

इश्क बुनना था कुछ रेशों से कुछ पलों से कुछ ख्वाब सजाने थे चाँद से सितारों से कम पड़ गए पल ,सितारे फिर बुनूँगी चदरिया झीनी उन बादलों के पार बादलों के पार खूबसूरत दुनिया होगी जहाँ ना ईर्ष्या,लिप्सा होगी रंग दूँगी सात रंगों से फिर ओढूँगी चदरिया झीनी इश्क महकेगा रूह पर मेरी #दुआ

निस्तब्ध रात्रि

निस्तब्ध मौन रात्रि ओढ़े सितारों की चुनरी चाँद लौंग पहन अश्रु के जुगनू सजाती है भावों , अनुभावों को अनाविल शब्द दे जाती है #दुआ

आ , तुझे अमर बना दूँ

अहा फागुन का चाँद उतर आया मन आकाश में करूँ आत्मबोध कभी आत्मशोध शाश्वत नहीं ये जीवन तो क्यूँ ना करूँ काव्य सृजन भाव-भूमि पर पुष्प खिला दूँ आ तुझे अमर बना दूँ  अतीत के झरोखों से स्मृतियों के ताने-बाने से यौवन की उमंगों से कुछ पुराने चित्रों से फिर तेरी तस्वीर बना दूँ आ तुझे अमर बना दूँ #दुआ

ज़िंदगी यूँ तुम्हें जिया जाए

ज़िंदगी काटी नहीं जाती जी जाती है धूप के टुकड़ों में छाँव के कोनों में विस्मृत स्मृतियों में भविष्य की आशा में आगत की आहट में कल्पना की सुगबुगाहट में ज़िंदगी काटी नहीं जी जाती है ज़िंदगी काटी नहीं जाती जी जाती है चाँद के प्यार में चाँदनी के खुमार में सितारों के साथ में प्रिय की आस में एक अबूझ प्यास में  किस्सों में कहानियों में पात्रों के सृजन में कटुता के विसर्जन में ज़िंदगी काटी नहीं जी जाती है ज़िंदगी काटी नहीं जाती जी जाती है किसी के आँसू पीने में कुछ अच्छा करने में निःस्वार्थ भला करने में तपते हृदय को शीतलता देने में कुछ मधुर लिखने में कुछ अच्छा पढ़ने में ज़िंदगी काटी नहीं जी जाती है #दुआ

यूँ ही ......

यूँ ही बैठे-बैठे सोचती हूँ मैं क्या वो भी मुझे सोचता होगा जब सुनाई देती होगी मेरी सदा क्या पलट कर देखता होगा जब गिरती होंगी बारिशें क्या मुझे खोजता होगा उतरती होगी जब शाम नशीली क्या मेरा अक्स उकेरता होगा किस्सों ,कहानियों में क्या मुझे ढूँढता होगा टी वी पर जब देखता होगा गाने क्या मेरे संग नाचता होगा करता होगा जब इबादत मेरे लिए दुआ माँगता होगा बिछड़ने के गम में अब भी क्या अश्क बहाता होगा #दुआ

जीत कैसी है

हार कैसी है ये जीत कैसी है प्रिय तुमसे ये प्रीत कैसी है रूष्ट होना फिर मिलना प्रणय में ये रीत  कैसी है मिलन में पुनः अवरोध है कैसा स्व को खोने का बोध है कैसा सौंप दिया तुझे जब अपने जीवन को मेरे हृदय में भीत कैसी है खुद ही लिखते हो नियम तुम सारे मेरी बाजी भी तुम ही चलते हो खेलने का ढोंग है कैसा द्वंद ही द्वंद जीत कैसी है #दुआ

पी का वियोग

नयनों में डोरे लाल पी का वियोग है भारी जागे गोरी रात भर जीवन संग्राम कटारी चिर वियोग की ज्वाला है दग्ध हो उठा हृदय कठिन है ये साधना बहुत किंतु पावन है प्रणय केश हैं  रूखे , होंठ हैं सूखे दयनीय है अब हाल कभी स्वर्णिम था अतीत परंतु अब दुष्कर है ये काल #दुआ

मेरा नाम , तुम्हारा नाम

उड़ चलो मेरे साथ दर्द को अंगीकार कर नीले आकाश से ऊपर अनंत क्षितिज की ओर एक मधुर तान कहीं दूर से आ रही है तुम मेरी रात्रि के चाँद हो ताकि मैं देख सकूँ खूबसूरत सितारे मदमाता इत्र बिखर रहा है चारों ओर प्रकृति बरसा रही है खूबसूरत फूलों की पंखुरियाँ जिन पर लिखा है मेरा नाम तुम्हारा नाम #दुआ

चाँद को बताया जाए

इस शहर से मन भर गया यारों चलो शहर कोई दूसरा बसाया जाए बिना मतलब के भी बात कर लो क्या ज़रूरत है मतलब पे याद आया जाए उगते सूरज को सब सलाम करते हैं कभी अँधेरो से दिल लगाया जाए हो ही जाती है सबसे गलती कभी ना कभी क्या ज़रूरी है फ़ासला बढ़ाया जाए दिल में छुपी रहती हैं मासूम ख्वाहिशें कितनी क्यों न आज चाँद को बताया जाए #दुआ

हाँ मुझे चलना होगा

हाँ मुझे चलना होगा सांझ की देहरी का दिया बन जलना होगा हाँ मुझे चलना होगा आग और पानी का खेल चले ज़द्दोज़हद की लड़ाई चले लक्ष्य तक पहुँचना होगा हाँ मुझे चलना होगा शब्दों के दावानल घेरे ज़िंदा रहने की तड़प पले मृत्यु भी शिकंजा कसे किसी अणु में पलना होगा हाँ मुझे चलना होगा भीतर मेरे है कोई जाग रहा जो नित्य नव समर लड़ा पुनः विश्वास् ढूँढना होगा हाँ मुझे चलना होगा मार्ग में कंटक मिले पाँव में छाले पड़े घाव को भूलना होगा हाँ मुझे चलना होगा #दुआ

कुछ शेष रह जाता है

हृदय के सादे कागज़ पर कोलाहल रचने लगती हूँ कलम जब चलती है निरंतर आग से गुज़रने लगती हूँ विडम्बना ये है फिर भी कुछ शेष रह जाता है कहती हूँ हर बार बहुत कुछ एक कोना अछूता रह जाता है #दुआ

फिर आऊँगी

आज फिर तेरे शहर में घूमने गई कुछ यादें मिलीं सीली - सीली कुछ तहखाने देखे घुप्प अँधेरे जहाँ दफन थीं तेरी मेरी बातें हो सके तो बारिश की चंद बूँदे संजो लेना मैं आऊँगी लेने यदि ज़िन्दा रही फिर तेरे शहर का चाँद रूमानी मिला कहता कोई भूली कहानी मिला सितारे भी टिमटिमाते मिले कुछ तेरी याद दिलाते मिले संदली हवा भी कुछ खोई थी शायद किसी की याद में रोई थी कुछ नज़्में संजो लेना मैं आऊँगी लेने यदि जिंदा रही फिर वही गुलमोहर रूमानी मिला प्रेम कथा कहता ज़ुबानी मिला नुक्कड़ पर चाय की गुमटी मिली यारों की टोली बैठी मिली बस तेरी मौज़ूदगी खोई थी आँख खुश्क अश्क रोई भी एक प्याला चाय मंगा लेना पीने आऊँगी यदि ज़िंदा रही #दुआ

सिसकियों की मर्म व्यथा

लिख दी सिसकियों ने मर्म व्यथा कुछ आधी - अधूरी रही कथा संध्या धूमिल थी , दीप प्रज्जवलित रुकी वायु , जीवन प्रतीक्षित मन था भयमय , मौन सतत प्रहरी बस मैं ही मैं , और कोई नहीं खिन्नता ,अवसाद थे भरे हुए अग्नि शिखा भी धधक रही संपूर्ण नगर है क्षुब्ध , त्राण कंठ में अटके जैसे प्राण शशि नभ में यूँ  टहल रहा  क्यूँ अन्तर ऐसा मचल रहा विष विषाद आवरण है चहुँ ओर पीड़ामय तन का पोर-पोर करूणा सिंधु है बह रहा जीवन , आह तू व्यर्थ कटा रागिनी संध्या हो चुकी काली रोए फूल , निराश माली नयनों में उपालंभ की छाया यत्र सर्वत्र झूठी माया जीवन विक्षुब्ध , झंझा प्रवाह मनु करता अनवरत कराह नहीं ओर - छोर इतना अथाह ढूंढना कठिन जो आज बहा विस्मृत अतीत जो था शांत वह सुंदर सुष्ठु चित्र कांत अब निस्तब्ध गगन है अधीर अचेतन चेतना , पिछड़ा समीर #दुआ

बस और कुछ नहीं

बैठे रहें यूँ ही आँखों में आँख डाले थामे इक दूजे का हाथ शिद्दत से गुज़रती रहें सदियाँ  बहती रहें नदियाँ पिघलते रहें ग्लेशियर हम देह ना होकर तलाश बन जाएँ जो इक दूजे को ढूँढ कर सवाल बन जाएँ पहचान , याद पीछे छूट जाएँ बस तुम हो , मैं हूँ , हम हैं , बस और कुछ नहीं #दुआ